नवसृजित उत्तराखण्ड राज्य में विविध प्रकार की कलाओ के बीज प्राचीनकाल से ही देखे जा सकते हैं. प्रारम्भिक के साक्ष्य कालसी के निकट जगतग्राम के उन स्थलों वास्तुकला से प्राप्त होते हैं जहाँ वार्षगव्यगोत्र में उत्पन्न शीलवर्मन ने कम-से-कम चार अश्वमेध यज्ञ किए थे. यद्यपि यह स्थल नष्ट-भ्रष्ट हो चुके हैं, परन्तु ईंटों से बनी एक गरुणाकार वैदिका वास्तुकला की दृष्टि से उल्लेखनीय है.
गरुणाकार वेदिका का निर्माण करने के लिए एक हजार ईटों को इस क्रम से स्थापित किया जाता था कि उड़ते हुएगरुण की आकृति स्पष्ट हो सके. जगतग्राम में भी वेदिका बनाने के लिए ईंटों को त्रिभुजाकार, आयताकार तथा समचतुर्भुजाकार के माप में स्थापित किया गया है. वेदी का निर्माण विभिन्न नामधारी विविध प्रकार की ईंटों को एक निश्चित क्रम से स्थापित किया गया है. ऐसा प्रतीत होता है कि इनके निर्माणकर्ताओं को ज्यामिति और वास्तुकला के नियमों का अच्छा ज्ञान था. गरुणाकार वेदिका को वेदों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बताया गया है. जगतग्राम की वेदिका की तिथि अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर तीसरी शताब्दी के अन्त में अथवा चौथी शताब्दी के प्रथम चरण में स्वीकार की जा सकती है.
उत्तराखण्ड में अधिकांश मूर्तियाँ स्थापत्य-कृतियों के रूप में मिलती हैं, जिनका निर्माण प्रायः मन्दिरों की प्राचीरों, गवाक्षों, आधारपीठिकाओं, छतों, द्वार स्तम्भों तथा शिला पट्टिकाओं पर हुआ है, किसी सीमा तक स्वतन्त्र मूतियाँ भी मिलती हैं, परन्तु उनके उद्गम और वास्तविक स्थान के विषय में कहना कठिन है. इस सन्दर्भ में संकालिया का यह कथन महत्वपूर्ण है कि भारतीय मूर्तिकला वास्तुकला की प्रसाधन मात्र रही है और स्वतन्त्र रूप से उसका विकास यदा-कदा ही हुआ है, उत्तराखण्ड के विषय में भी यह ठीक प्रतीत होता है. मुर्तियों का विभाजन शैली, वस्त्रों, आभूषणों तथा उत्कीर्ण लेखों के तुलनात्मक विवरण के अतिरिक्त निम्न रूप से किया जा सकता है-
1. विभिन्न धर्मों से सम्बन्धित मूर्तियाँ,
2. अन्य मूर्तियाँ.
उत्तराखण्ड में विभिन्न धर्मों से सम्बन्धित अनेक मूर्तियाँ मिली हैं जिन्हें क्रम से निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है-
(1) शैव धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ
(2) वैष्णव धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ
(3) ब्रह्मा की मूर्तियाँ
(4) सूर्य व नवग्रहों की मूर्तियाँ
(5) देवियों की मूर्तियाँ
जागेश्वर के लकुलीश मन्दिर में शिव की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिसमें शिव का त्रिरूप उल्लेखनीय है. मध्यमुख जटाओं से मंडित है तथा कानों में लटकते आभूषण कारुणिक आभा को दर्शाते हैं. वायाँ मुख परोपकारिता का सूचक है तथा दायाँ मुख सृष्टि के संहारकर्ता का रौद्र रूप प्रतीत होता है.
नृत्य मुद्रा में शिव का रूप भारत में सदैव से प्रधान रहा है. उत्तराखण्ड राज्य इसका अपवाद नहीं है. अधिकांश मन्दिरों में शिव के इसी रूप को उभारा गया है. फिर भी यदा-कदा इस रूप में स्वतन्त्र मूर्तियाँ भी मिलती हैं. इस सन्दर्भ में जागेश्वर के नटराज मन्दिर तथा गोपेश्वर मन्दिर में प्राप्त नृत्यधारी मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं.
केदारनाथ मन्दिर की द्वारपट्टिका पर शिव का वज्रासन मुद्रा का उत्कीर्ण है. यद्यपि द्वारपट्टिका का बहुत सा भाग दूट- फूट चुका है, परन्तु शिव का वीणाधर स्वरूप, नाग डमरू तथा अमरफल से मंडित है. दोनों किनारों पर कुछ स्त्री-पुरुष की आकृतियाँ मूर्तियाँ मूर्ति की ओर झुक रही हैं. शैली के आधार पर इस मूर्ति की तिथि ग्यारहवीं शताब्दी स्वीकार कर सकते हैं.
समस्त शास्त्रों के ज्ञाता,शिव की अनेक प्रतिमाएँ जगत्को उपदेश देती हुई उत्तराखण्ड में मिलती हैं. जागेश्वर के छोटे मंन्दिर की द्वारपट्टिका पर इसी प्रकार की एक मूर्ति उत्कीर्ण है. इस मूर्ति का वहुत-सा भाग टूट-फूट चुका है.इस प्रकार की कुछ स्वतन्त्र मूर्तियाँ वागेश्वर, वैजनाथ और द्वारहाट में भी प्राप्त हुई हैं, लेकिन इस सन्दर्भ में वैजनाथ और जागेश्वर की मूर्तियाँ विशिष्ट रूप से उल्लेखनीय हैं.
यह मूर्ति वीर्यासन मुद्रा में है. इसके चार हाथ हैं जो विभिन्न मुद्राओं में दिखाई देते हैं. ऊपर का दायाँ हाथ जिस मुद्रा में है तथा बाएँ हाथ में त्रिशूल है. नीचे के हाथों में-एक में है तथा दूसरा या तो टूट गया है या दिखाई नहीं देता. पुष्प मुख पर जटा-जूट तथा शरीर पर मृगछाला है. वायीं जंघा पर पार्वतीजी विराजमान हैं जिन्होंने माला, हार एवं करधनी इत्यादि आभूषण धारण कर रखे हैं. आधार पृष्ठभूमि पर बैल, सिंह, गणेश तथा मोर की पीठ पर सवार कार्तिकेय उत्कीर्ण हैं. मूर्ति के चारों कोनों में आकृतियाँ हैं जिनमें ऊपर की ओर दो विद्याधर मालाएँ लिए खड़े हैं तथा नीचे की ओर दो त्रिशुलधारी ऋषि हैं.
जागेश्वर की प्रतिमा भी लगभग वैजनाथ की मूर्ति सदृश ही है, इस मूर्ति के भी चार हाथ हैं, परन्तु जहाँ वागेश्वर की प्रतिमा में बायीं ओर का नीचे का हाथ अदृश्य है, वहाँ इस प्रतिमा में उमा के कटि प्रदेश के घेरे हैं. नीचे के भाग में त्रिशूलघारी ऋषि नहीं हैं. शेष चिह्न ज्यों के त्यों हैं. इन मूर्तियों पर दक्षिण का व्यापक प्रभाव है, परन्तु इस आधार पर तिथि निश्चित करना कठिन है. अहिछता में उत्तरवर्ती गुप्तकाल की मिट्टी की एक इसी प्रकार की मृर्ति प्राप्त हुई है, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्तर भारत में शिव के इस रूप की पूजा प्रारम्भ से भी होती थी. लेकिन उत्तराखण्ड में इसका विकास सम्भवतः आठवीं व नवीं शताब्दी में ही हुआ. मन्दिर में उत्कीर्ण मूर्ति सम्भवतः प्रारम्भिक काल की ही है. शेष स्वतन्त्र मूर्तियों को 11वीं व 12वीं शताब्दी का स्वीकार किया जा सकता है.
इस प्रकार की मूर्तियाँ दक्षिण भारत में प्रचुर मात्रा में मिलती हैं, परन्तु उत्तराखण्ड में मूलतः इस रूप का अभाव है. लाखामण्डल में इस रूप से मिलती जुलती एक प्राप्त हुई है जो धनुषाकार मुद्रा में आठ भुजाओं से युक्त है. इस मूर्ति को शिव के त्रिपुरान्तक रूप अपसमार रूप से जोड़ा जाता है. शैली और सज्जा की दृष्टि से इस मूर्ति को आठवीं शताब्दी का स्वीकार किया जा सकता है.
कालीमठ के मंदिर में शिव-पार्वती की एक संयुक्त मूर्ति (3' - 4' x 2) आज भी स्थापित है. शिव ललितासन में प्रिया की ओर उन्मुख हैं. मूर्ति के चार हाथ जिनमें ऊपर के हाथों में धतूरे के फूल तथा त्रिशूल है. पार्वती शिव की दायीं जंघा पर विराजमान हैं. इसके अतिरिक्त कार्तिकेय, नन्दी, गणेश आदि देवताओं की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं. इस मूर्ति के तिथि के सम्बन्ध में दो प्रकार के साक्ष्य स्थापित किए जा सकते हैं. प्रथम तो आठवीं शताब्दी का एक अभिलेख मिला है, दूसरे शैली की दृष्टि से भी यह मूर्ति उत्तरवर्ती गुप्त शिल्प नियमों से अधिक मिलती है. दोनों तथ्यों के आधार पर इस मूर्ति का निर्माण आठवीं शताब्द, के आस-पास निर्धारित किया जा सकता है.
इस मूर्ति के अधिकांश लक्षण कालीमठ की प्रतिमा से ज्यों के त्यों मिलते हैं, परन्तु उल्लेखनीय बातों में मूर्ति की दस भुजाएँ तथा तीन मुख हैं जो अब तक प्राप्त शैव मूर्तियों में विशिष्ट बातें हैं. इन हाथों में दायीं ओर त्रिशूल, खरपर, खडग तथा शिला आदि हैं तथा दूसरी ओर खटवांग, खेटक तथा पाश प्रतीत होते हैं. अन्य दो हाथ वरद और अभय मुद्रा में उठे हैं, सीधी ओर का पाँचवाँ हाथ पार्वती के कटि प्रदेश को समेटे आलिंगन मुद्रा में है. शिव के पीछे प्रभावली थी जो सम्भवतः अब टूट गई है. इस मूर्ति के साथ गरुण प्रतिमा पर एक दसवीं शताब्दी का अभिलेख उत्कीर्ण है जिसके आधार पर इस प्रतिमा को दसवीं शताब्दी का स्वीकार किया जा सकता है,
उत्तराखण्ड में लकुलीश की अनेक मूर्तियाँ मिलती हैं. ऐसा प्रतीत होता है तत्कालीन समाज में इस सम्प्रदाय का पर्याप्त प्रभाव था. कालान्तर में कनफटा साधु समाज का विकास इसी वर्ग से हुआ. जोगेश्वर मन्दिर में लकुलीश की
दो मूर्तियाँ मिली हैं, इस मन्दिर की तिथि ग्यारहवीं शताब्दी स्वीकार की जाती है,
विभिन्न विद्वानों का मत है कि भारत में गणेश पूजा का प्रादुर्भाव ईसा की पाँचवीं शताब्दी में हुआ, परन्तु उत्तराखण्ड में सातवीं शताब्दी से पूर्व की गणेश की कोई प्रतिमा नहीं मिलती. अधिकांश मूर्तियाँ मन्दिरों की द्वारपट्टरिकाओं, आलों. प्राचीरों आदि पर उत्कीर्ण मिलती हैं. फिर भी कहीं कहीं स्वतन्त्र तथा मन्दिरों में पूजा के निमित्त भी स्थापित हैं. शैली व मुद्रा की दृष्टि से गणेश की निम्नलिखित मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं-
जोशीमठ में गणेश की नृत्यधारी केवल एक मूर्ति मिलती है जो शैली व मुद्रा की दृष्टि से उत्तराखण्ड की विशिष्ट कृति है. देवता नृत्य मुद्रा में आठ भुजाओं से युक्त है, आसन के पास मूषिक (वाहन) ऊपर मुँह उठाए है. यह प्रतिमा लगभग ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास की प्रतीत होती है.
टूटी-फूटी स्थिति में यह मूर्ति काशीपुर (उधमसिंह नगर) के छोटे मन्दिर में स्थापित है. गणेश पदमासन मुद्रा में चार हाथों से युक्त हैं. पीछे के हाथों में परशु एवं गदा है तथा आगे के हाथ जंघाओं पर रखे हैं. संकालिया का कथन है कि पद्मासन मुद्रा में अब तक प्रकाशित किसी भी देवता की मूर्ति नहीं मिलती. इस मुद्रा में सम्भवतः अव तक उत्तर भारत में कोई प्रतिमा नहीं मिलती. शैली की दृष्टि से इस मूर्ति का निर्माण सम्भवतः 7वीं-8वीं शताब्दी के आस-पास हुआ होगा.
इस प्रतिमा के चार हाथ हैं. आगे का दायों हाथ अभय मुद्रा में है तथा पीछे के हाथ में गदा है. आगे के बायें हाथ में मोदक पात्र तथा पीछे के हाथ में कोई लता है. नीचे के आसन पर शक सम्बत 1103-1181 का एक लेख उत्कीर्ण है जिससे प्रतिमा की तिथि स्वीकार की जा सकती है.
उत्तराखण्ड में कार्तिकेय की अनेक प्रतिमाएँ मिली हैं, परन्तु उनमें से अधिकांश टूटी-फूटी हैं. मूर्तियों का निर्माण शिव प्रतिमाओं के साथ साथ द्वार पट्टिकाओं पर, छत के अन्दर के भाग में तथा कहीं कहीं स्वतन्त्र रूप में हुआ है.
कार्तिकिय की इस मृर्ति में वे सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं जो मूर्तिशास्त्र द्वारा स्वीकृत हैं. देवता मोर की पीठ पर बैठे हैं. इनके चार हाय हैं जिनमें शक्ति खडग तथा खेटक है तथा अन्तिम वायाँ हाथ मोर की ओर झूुका है. ऊपर के दोनों भागों में गान्धर्व माला लिए उड़ते दिखाए गए हैं.
यह मूर्ति विशिष्ट है. देवता पीठ पर तो सवार है की साथ में दोनों ओर दो मोर हैं जो देवता की ओर निहार रहे हैं. मूर्ति के चार हाथ छः सिर है जो क्रमशः दो पंक्तियों में तीन तीन की संख्या में स्थापित हैं. इस मूर्ति पर दक्षिण का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है. वैजनाथ व लाखामण्डल की मूर्ति का समय 12वीं शताब्दी स्वीकारा जा सकता है.
शैव धर्म के पश्चात् उत्तराखण्ड का दूसरा प्रमुख धर्म वैष्णव धर्म था. केदार की भाँति पंचवदरी की कल्पना तथा विण्णु के विभिन्न जन्मों से सम्बन्धित मूर्तियां यहाँ मिलती हैं. वैष्णव धर्म से सम्बन्धित निम्नलिखित मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं-
विष्णु की यह खड़ी प्रतिमा ठाकुरद्वारा से प्राप्त मूर्ति से वहुत अधिक मिलती है. इस प्रतिमा में साज सज्जा पर विशेष वल दिया गया है, जिससे शरीर के खाली भागों को सुगमता से देखना कठिन है. दूसरे अस्पष्ट और पतला प्रभामण्डल है, इस प्रकार के अधिकांश प्रभामण्डल ग्यारहवीं शताब्दी के मिलते-जुलते हैं. इस आधार पर इस मूर्ति का निर्माण 11वीं शताब्दी के आसपास हुआ है.
पाँच फुट की यहाँ प्रतिमा अभंग में स्थापित है, इसके चार हाथ हैं, जिनमें पद्म, गदा, चक्र तथा शंख है. मूर्ति कीर्तिमुख माला, वैजन्ती तथा रत्नकुण्डलों से सज्जित है. प्रतिमा के चारों ओर अनेक चित्र हैं. ऐसा प्रतीत होता है यह देवता के विभिन्न जन्मों के प्रतीक है. इसकी तिथि 10वीं शताब्दी स्वीकार की जा सकती है. की यह ऊँची प्रतिमा अभंग मुद्रा में स्थापित
करोड़ों हिन्दूवासियों के विश्वास का प्रतीक इस मूर्ति का निर्माण पवित्र शालिग्राम पत्थर से हुआ है. करोड़ों हिन्दू एवं विभिन्न धार्मिक विश्वास के लोग इस मूर्ति पर अपना शीश नवाकर पुण्य अर्जित करते हैं. विद्वानों ने इसे बौद्ध प्रतिमा सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, परन्तु महाभारत काल से बदरीनाथ को वैष्णव तीर्थ स्वीकार किया जाता रहा है.
विष्णु के पाँचवें अवतार की प्रतीक वामन की प्रतिमा काशीपुर (उधमसिंह नगर) में मिलती है जो मथुरा के रेतात पत्थर से निर्मित है. मूर्ति की पीठिका पर चौथी पाँचवीं शताब्दा की लिपि में मूर्तिकार का नाम उत्कीर्ण है जिसके आधार पर इस मूर्ति को छटी शताब्दी का स्वीकार कर सकते हैं.
विष्णु के इस रूप की अधिकांश मूर्तियाँ उत्तराखण्ड के मन्दिरों के प्राचीरों, पट्टिकाओं, छतों तथा द्वारों पर उत्कीर्ण मिलती है. वैजनाथ तथा द्वाराहाट की स्वतन्त्र प्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं. इन दोनों मूर्तियों में देवता शेषनाग की पीठ पर विश्राम कर रहे हैं. शीर्ष के उपर शेषनाग के फनों की छाया है. वैजनाथ की मूर्ति का समय शैली और लिपि शास्त्र के आधार पर आठवीं शताब्दी स्वीकार की जा सकती है. जबकि द्वाराहाट की मूर्ति अदृश्य चिह्नों तथा कला की दृष्टि से हीन होने के कारण ग्यारहवीं शताब्दी की प्रतीत होती है.
इस देवता की सर्वप्रथम मूर्ति द्वाराहाट में रत्नदेव के छोटे मन्दिर की द्वारशीर्ष पट्टिका पर उत्कीर्ण मिलती है. देवता के चार भुजा हैं और वह कमलासन पर आसीन है. यह मूर्ति लगभग 11वीं शताब्दी के आसपास स्वीकार की जा सकती है.
ब्रह्मा की दूसरी मूर्ति बैजनाथ संग्रहालय से प्राप्त हुई है. देवता अरद्धपर्यक मुद्रा में आसीन है. चारों हाथों में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ जिनमें कलश पोथी व शंख उल्लेखनीय है. शैली की दृष्टि से यह मूर्ति सम्भवतः 12वीं शताब्दी के अन्तिम भाग में निर्मित हुई लगती है.
जागेश्वर की मुख्य प्रतिमा के साथ परम्परागत देवताओं में दायें पक्ष की व्रह्मा की मूर्ति उल्लेखनीय है. देवता के चार शीर्ष तथा चार भुजाएँ हैं. मन्दिर की तिथि के आधार पर इस मूर्ति को 11वीं शताब्दी का स्वीकार किया जा सकता है.
सूर्य पूजा से सम्बन्धित उत्तराखण्ड में जितनी मूर्तियाँ मिलती हैं उनमें अधिकांश टूटी-फूटी अवस्था में हैं. इसमें जोगेश्वर, द्वाराहाट तथा वैजनाथ की सूर्य प्रतिमाएें उल्लेखनीय हैं.
यह मुर्ति 3 फीट ऊँची है तथा काले पत्थर से निर्मित है. देवता समभंग मुद्रा में सात घोड़ों से मण्डित रथ में खड़े हैं, मध्य के अश्व पर अरुण आसीन है.
इस प्रतिमा में देवता समभंग मुद्रा में खड़े हैं, परन्तु रथ के ऊपर न होकर पदमासन पर विराजमान हैं. शैली व बनावट की दृष्टि से उक्त वर्णित प्रतिमाओं को 8वीं व 11वीं शताब्दी स्वीकार कर सकते हैं.
यह मूर्ति सात घोड़ों के रथ पर आसीन है. इस मूर्ति का निर्माण 1।वीं शताब्दी में हुआ था.
उत्तराखण्ड में नवग्रहों की सर्वप्रथम मूर्ति द्वाराहाट के गुर्जर मन्दिर की पट्टिका पर उत्कीर्ण मिलती हैं, परन्तु वह इतनी टूट फूट गई है कि उसके विषय में कुछ भी कहना कठिन है. जोगेश्वर की पट्टिका पर नवग्रह उत्कीर्ण है.
देवताओं के साथ प्रायः देवियों की मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण मिलती हैं. कुछ देवियों का वर्णन निम्न रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं-
पार्वती को उमा व गौरी नामों से पुकारा गया है. उत्तराखण्ड में अनेक मुर्नि याँ मिलती हैं, जिन्हें दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-(क) हरगीरी की संयुक्त मूर्तियाँ, (खर) गीरी की स्वतनत्र मूर्तियाँ. संयुक्त मूर्तियाँ उत्तराखण्ड में पर्याप्त रूप से मिलती हैं, जिनका उल्लेख शैव मूर्तियों के अन्तर्गत किया जा चुका है. स्वतन्त्र मूर्तियों के उदाहरण में निम्नलिखित प्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं-
यद्यपि यह प्रतिमा नष्ट-भ्रष्ट हो चुकी है, लेकिन जो शेष है वह कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. देवी अंजलि हस्त मुद्रा में आसीन है.
इस मूर्ति में देवी को तपस्या करते हुए दिखाया गया है. देवी चार लपटों के मध्य खड़ी है. शैली की दृष्टि से इस मूर्ति को 8वीं, 9वीं शताब्दी का स्वीकार किया जा सकता है.
समपादष्टानक मुद्रा में इस देवी की प्रतिमा 4'-6' ऊँची है, चारों हाथों में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ हैं. कला की दृष्टि से यह उत्कृष्ट कृति है, इसकी तिथि 9वीं शताब्दी है. पार्वती की दो विशिष्ट मूर्तियां दिकुली (नैनीताल) तथा द्वाराहाट में भी मिलती हैं.
उत्तराखण्ड की दूसरी महत्वपूर्ण देवी थी. इसकी भी अनेक मूर्तियाँ उत्तराखण्ड में मिलती हैं, उल्लेखनीय दृष्टि से वैजनाथ संग्रहालय की खड़ी मूर्ति तथा जागेश्वर व कालीमठ की सिंहवाहिनी प्रतिमाएँ विशिष्ट हैं.
शक्ति रम्भा देवी का यह रूप उत्तराखण्ड में सर्वत्र प्रसिद्ध है. देवी के इस रूप की प्रथम मूर्ति चम्बा में मिलती है.
वैष्णव धर्म सम्बन्धी देवियों का उत्तराखण्ड में अभाव है. सरस्वती, लक्ष्मी, श्री तथा अन्य सम्वन्धित देवियों की प्रतिमाएँ भी अधिक नहीं मिलती. इस सन्दर्भ में गजलक्ष्मी प्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं-
इस श्रेणी की प्रथम मूर्ति द्वाराहाट के मनियान मन्दिर की शीर्ष पट्टिका पर उत्कीर्ण है, लेकिन यह विकृत अवस्था में है. दूसरी प्रतिमा गोपेश्वर के पुजारी ने पास के मैदान से प्राप्त की. इसके नीचे का भाग पूर्ण रूप से टूट चुका है. सम्भवतः इस प्रतिमा का निर्माण नवीं शताब्दी के आस -पास हुआ. अन्य देवियों में सप्तमातृ की प्रतिमाएँ तथा गंगा-यमुना की प्रतिमाएँ उत्तराखण्ड में मिलती हैं, लेकिन ये इतनी विकृत अवस्था में हैं कि इनके विषय में विस्तार से कुछ भी नहीं कहा जा सकता.
उत्तराखण्ड में जितनी भी कलाकृतियाँ मिलती हैं उनमें बौद्ध और जैन धर्मों से सम्बन्धित कृतियाँ प्रायः नगण्य हैं.
मन्दिर मिलते हैं. शिल्प उत्तराखण्ड में विभिन्न प्रकार शास्त्रों के अनुसार मन्दिरों के निर्माण के लिए जिन तीन शैलियों का वर्णन किया गया उनमें से नागरा शैली ही उत्तराखण्ड में अधिक प्रसिद्ध थी. वैसे समसामयिक प्रभावों तथा जलवायु सम्बन्धी कारणों से उत्पन्न प्रभावों को भी देखा जा सकता है. उत्तराखण्ड में तीन प्रकार के मन्दिर मिलते हैं-
1. चपटी छत वाले मन्दिर,
2. नागरा शैली के मन्दिर,
3. कत्यूरी शिखर वाले मन्दिर.
इस प्रकार के मन्दिरों की ऊँचाई अधिक नहीं होती थी. शिखर के स्थान पर केवल चपटी छत ही होती थी जिसका निर्माण द्वारपट्टिका के ऊपर कटे हुए शिलाखण्ड रखकर किया जाता था. छत के ऊपर मध्य कलश अथवा छत्र स्थापित किया जाता था. ऐसा प्रतीत होता है कि यह उत्तराखण्ड के मन्दिरों का प्रारम्भिक रूप था.
इस शैली की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं-
(1) अनुविक्षेष (प्लान),
(2) उद्विक्षेप (एलिवेशन).
पृथ्वी पर उसका आधार वर्गाकार रूप में होता था जो चारों ओर वढ़कर उसी आकार में परिवर्तित कर दिया जाता था जो उसके मध्य विन्दु से वर्ग का आकार था. इस शैली का सबसे उल्लेखनीय भाग शिखर था जिसका प्रचलन हिमालय से लेकर विंध्या तक होता था. नागरा शिखर की रचना गर्भगृह की चपटी छत से प्रारम्भ होती थी. चारों कोनों से अन्दर की ओर झुकी दीवारें बनाई जाती थीं जो संकीर्ण होती हुई एक बिन्दु पर आकर मिलती थीं. इसके ऊपर एक गोल शिला रखी जाती थी जिसकी परिधि को अनेक वृत्तों में बाँटकर चक्र के समान सजाया जाता था. शिला का निचला भाग आमलक तथा अन्तिम भाग कलश कहलाता था.
यह नागरा शैली का ही विकसित रूप था जिसमें थोड़ी विभिन्नता के साथ कत्यूरी शिखर का प्रचलन हुआ. इस शिखर के निर्माण में दीवारों को अधिक नहीं झुकाया जाता था, वरनु ऊपर एक चपटी छत लगाकर उसको पाट दिया जाता था. छत और दीवारों को जोड़ने के लिए वड़ी-बड़ी सब्वलों का प्रयोग इस कुशलता से किया जाता था कि वाहर से दिखाई न दे सके.
यद्यपि कि मंदिरों का विभाजन करना अत्यधिक कठिन है, परन्तु मूल रूप में मन्दिरों का विकास गुप्त युग से ही प्रारम्भ हुआ. अतएव जो मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से सरल एवं गुप्तकालीन मन्दिरों से अधिक मिलता है उन्हें प्रारम्भिक काल के मन्दिरों के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं-
जोशीमठ से सात मील दूर थोली गंगा के तट पर चपटी छत वाला तपोवन का यह छोटा मन्दिर वास्तुकला की दृष्टि से उल्लेखनीय है, सम्भवतः यह उत्तराखण्ड का अपनी प्रकार का अकेला मन्दिर है. इसका निर्माण सपाट शिलाखण्डों से हुआ है. यह मन्दिर गुप्तकाल के साँची, भूमरा तथा तिगवा मन्दिर विना शिखर के चपटी छत वाले बने हैं, उसी के सदृश है, अतः इसकी तिथि गुप्तकाल के प्रारम्भिक युग में स्वीकार की जा सकती है.
चौखटिया कर्णप्रयाग मार्ग पर, कर्णप्रयाग से 14 मील पहले आदिवदरी में 14 मन्दिरों का समूह है, जो 84 फीट लम्बे तथा 42 फीट चौड़े क्षेत्र में फैले हुए हैं. इनमें से दूसरा, चौथा, छठा, सातवाँ तथा चौदहवोँ मन्दिर कला की दृष्टि से उल्लेखनीय है. यद्यपि इन मन्दिरों में थोड़ा-बहुत अन्तर सभी में है, लेकिन इन मन्दिरों में कुछ ऐसी समानताएँ हैं, जो इन्हें उत्तराखण्ड के अन्य मन्दिरों से अलग करती है, सभी मन्दिरों का निर्माण प्रायः आधार पीठिकाओं पर हुआ हैं जिन पर चढ़ने के लिए चौथे व पाँचवें मन्दिर में पाँच -पाँच सीढ़ियाँ मिलती हैं. सभी मन्दिरों में नागर शैली का शिखर मिलता है. इस शिखर का प्रारम्भ परवर्ती गुप्त युग के देवगढ़ के मन्दिर से माना जाता है. सभी तथ्यों के आधार पर इन मन्दिरों को गुप्त युग के अन्तिम काल का मान सकते हैं,
जागेश्वर अल्मोड़ा से 23 मील उत्तर-पूर्व की ओर यह स्थान स्थित है, यहाँ पर लगभग छोटे-बड़े 150 मन्दिरों का समूह है, जिनमें कला की दृष्टि से जागेश्वर, मृत्युंजय, दण्डेश्वर, नवदुर्गा, लकुलीश तथा नटराज आदि के मन्दिर उल्लेखनीय हैं. जागेश्वर, मृत्युंजय तथा दण्डेश्वर के मन्दिर कत्यूरी वंश का इन्हें सबसे प्राचीनतम मन्दिर स्वीकार किया जाता है, यरयपि अनुविक्षेप, उदाविक्षेप तथा रचना क्रम की दृष्टि से इन मन्दिरों में कुछ भिन्नता है, लेकिन मूल रूप से इनकी रचना में उल्लेखनीय समानता है.
इस मन्दिर की ऊँचाई 30 फीट है. उत्तर की ओर का भाग अधिक स्पष्ट व सुरक्षित है. मन्दिरों का निर्माण दो घुमाव- दार नीवों पर हुआ है जो बनावट में अधिक सरल है. मन्दिर में आधार पीठिका का अथवा जगती का कोई प्रमाण नहीं मिलता, परन्तु आँगन की रचना कुछ ऊँचाई पर की गई है. यद्यपि इस शैली के मन्दिर उत्तर भारत में अनेक स्थलों पर मिलते हैं, परन्तु उत्तराखण्ड में अपनी प्रकार का यह विशिष्ट मन्दिर है.
जागेश्वर के मन्दिरों के सन्दर्भ में जोशीमठ के वासुदेव तथा एक अन्य अनामधारी मन्दिरों के विषय में कुछ भी कहना ठीक नहीं प्रतीत होता, परन्तु शैली की दृष्टि से इन मन्दिरों की बहुत-सी विशेषताएँ नवदुर्गा के मन्दिर से मिलती हैं.वासुदेव के शिखर विभिन्न शैलियों का सम्मिश्रण प्रतीत होता है. ऐसा लगता है कि इस मन्दिर का पुनः निर्माण हुआ है. मन्दिर का सबसे उल्लेखनीय भाग उसके छत को रोकने वाले सरदल तथा शिखर का विभिन्न भागों में विभाजन है जो वास्तुकला की दृष्टि से उल्लेखनीय है.
आकार-प्रकार की दृष्टि से दोनों मन्दिरों में पर्याप्त समानता है. इनकी ऊँचाई 30 व 35 फीट है. दोनों मन्दिरों का निर्माण दो घुमावदार नींवों पर हुआ है. मन्दिर के प्रवेश द्वारों पर चैत्य प्रकार के मेहराव लगे हैं जिन पर लकुलीश व नटराज शिव की प्रतिमाएँ उभारी गई हैं. मन्दिरों के प्रवेश द्वार पर फूल-पत्तियाँ उत्कीर्ण हैं.
वासुदेव के मन्दिर के पास लगा पाण्डुकेश्वर का यह योगवदरी का मन्दिर कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. मन्दिर लगभग 40 फीट ऊँचा है तथा गर्भगृह और मण्डप की माप क्रमशः 7' x 7' तथा 24' x 24' है. मण्डप की प्राचीरें अन्द्ध- त्रिभुजाकार नाव की तरह झुकी हैं. पाण्डुकेश्वर दान-पत्र के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि बंगाल की पाल कला का प्रभाव इस पर दृष्टिगोचर होता है. शैली के आधार पर इस मन्दिर की तिथि 9वीं शताब्दी के आरम्भ में स्वीकार की जा सकती है.
इस मंदिर का उद्विक्षेप व अनुविक्षेप पूर्व मन्दिर के समान है. इन दोनों मन्दिर में (योगवदरी व वासुदेव की) कांसे की प्रतिमाएँ हैं.
इस काल को किसी निश्चित अवधि में बाँधने के लिए पुष्ट प्रमाण नहीं है, परन्तु शैली की दृष्टि से उत्तराखण्ड के मन्दिरों में परिवर्तन और विकास के जो संकेत मिलते हैं उन्हीं के आधार पर उक्त सीमाओं को स्वीकार कर सकते हैं, इस काल से अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ जो वास्तुकला की दृष्टि से उल्लेखनीय है,
शैली की दृष्टि से इन दोनों मन्दिरों में भारी समानता है. इन मन्दिरों में पतला शिखर, बाँसुरीनुमा आमलक, पड़े हुए शिला फलकों से मण्डित छत है. उत्तराखण्ड में इस प्रकार के लगभग 35 मन्दिर मिलते हैं, परन्तु इसमें मृत्युंजय व केदारेश्वर का मन्दिर महत्वपूर्ण है.
इस मंदिर का निर्माण पाँच-भूमि आमलकों पर हुआ है. जंधाओं की बनावट सादी है. मन्दिर का निर्माण दो घुमावदार नीवों पर हुआ है जिसमें एक सादी तथा दूसरी सज्जित है.
द्वाराहाट के अन्य मन्दिरों की अपेक्षा रत्देव के मन्दिर शैली की दृष्टि से कुछ भिन्न हैं. शिखर झुकाव लिए हुए हैं.
यहाँ पर 12 मन्दिरों का समूह है, शैली की दृषष्टि से ये नाटे कद के मन्दिर हैं तथा बहुत कुछ रत्नदेव के मन्दिरों से मिलते हैं. इनमें से पाँच मन्दिर एक ही पंक्ति में खड़े हैं। जिनका मिला-जुला अ्द्ध -मण्डप है जो सपाट स्तम्भों पर रुका है.
इस मन्दिर का यह नाम कव और कैसे पड़ा इस विषय में कहना कठिन है, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इसका नामकरण शिव के नाम के पीछे ही पड़ा, क्योंकि कभी-कभी उन्हें भूतनाथ भी कहा गया है. पार्वती के साथ विवाह करने जाते हुए शिवजी ने अपनी वारात के साथ गोमती के तट पर कत्यूरी घाटी में जिस स्थल पर विश्राम किया था वही स्थान वैजनाथ कहलाया. मुख्य मन्दिर में आदमकद पार्वती की सुन्दर और अद्भुत मूर्ति है. पत्थर से निर्मित मूर्ति कांस्य की वनी मूर्ति होने का प्रम पैदा करती है. वैजनाथ कई मन्दिरों का समूह है। इन मन्दिरों के शिलालेखों से पता चलता है कि कत्यूरी, चन्द तथा गंगोली राजाओं ने यहाँ समय -समय पर मन्दिरों का जीर्णोद्वार कराया था. सम्भवतः उन्हीं के समय में मन्दिरों का निर्माण किया गया. मन्दिर के संग्रहालय में वैजनाथ से प्राप्त कई मूर्तियाँ रखी गई हैं. पार्वती शेष-साई-विष्णु, कुवेर, सूर्य, चण्डिका, महिषासुर मर्दिनी तथा अष्टभुजा देवी की प्रतिमाएँ मूर्तिकला के उदाहरण हैं. इसका निर्माण सादी घुमावदार नींव पर त्रियंगबाढ़ स्वरूप में हुआ है, इसमें पाँच-भूमि आमलक हैं जो शिखर की ओर उन्मुख हैं, शिखर का विकास एक-सा नहीं हुआ है. इसके अन्तिम मोड़ पर एक छोटी-सी आमलक शिला है जिस पर छोटा सा सीधा कलश स्थापित है.
अल्मोड़ा से 6 मील उत्तर की ओर कोसी नदी की तटीय पडाड़ी पर पह मन्दिर स्थित है. यधपि यह मन्दिर कुछ विनष्ट हो चुका है, परन्तु सूर्य मन्दिर के रूप में यह उत्तराखण्ड की उल्लेखनीय कृति है. मुख्य मन्दिर एक परकोटे से घिरा है जिसके अन्दर अन्य छोटे-छोटे पचास मन्दिर भी स्थित हैं.
फुमाऊँ में सूर्य की उपासना शक जाति के कबीलों के आक्रमण के पश्चात् प्रारम्भ हुई. उत्तरभारत की अन्य सूर्य मूर्तियों की तरह यह भूर्ति भी बूट और बारबाण 'चोगा' पहने हुए है, सूर्य के साथ वरुण की भी मूर्ति है जो रष पर वैठे है, मूर्ति वहुत सुन्दर नहीं है, देवत्व के स्थान पर मानवत्य भाव अधिक है, कटारमल के सूर्य भूर्ति पर चन्देल गहड़वाल शैली की छया अधिक है, सप्तअश्व र्थी प्रतिमा इसके सू्य মन्दिर होने का आभास कराती है, वास्तविक मूर्ति के स्थान पर दूसरी मूर्ति रखी जान पड़ती है. वास्तुशैली की दृष्टि से देवालय 12वीं शती का प्रतीत होता है, मन्दिर के चारों ओर कई भन्दिरों की भरमार है, जो सूर्य मन्दिर की तरह घ्वंस हो पुके हैं, मन्दिरों में मुख्य प्रतिमाएँ अपने स्थानों पर विद्यमान नहीं हैं, गर्भगृह एक संग्रहालय का रूप ले चुका है विष्णु की पिभिन्न मुद्राएँ सूर्य, नरसिंह अवतार, शिव- पार्वती, कुबेर, गणेश, महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियों यहाँ हैं, सूर्य मन्दिर का निर्माण एक ऊँचे चबूतरे पर किया था और उसके चारों ओर लगभग 32 मीटर लम्बी और 30 मीटर चौड़ी चारदीवारी थी. मन्दिर का अधिकांश भाग खण्डित हो चुका है. फिर भी इसकी विशालता को देखकर इसके प्राचीन वैभव का अनुमान लगाया ही जा सकता है.
गोमती और सरयू के संगम पर हरी भरी पर्वत श्रेणियों से घिरे स्थान पर यह मन्दिर स्थित है, वैसे यहाँ अनेक छोटे
मन्दिर हैं, परन्तु यह नगर अपने शिव मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है.
वागेश्वर के शिव मन्दिर के विषय में एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है, विवाहोपरान्त जब शिव पार्वती विहार करते- करते सरपू और गोमती के संगम पर पहुँचे, तो एकाएक आकाशवाणी द्वारा शिवजी की प्रशंसा की गई. इस प्रकार बागेश्वर (वाक् ईश्वर) की उत्पत्ति हुई. एक अन्य कथा के अनुसार जब सरयू नदी हिमालय से अयोध्या में श्रीराम के जन्म पर आयोजित समारोह में सम्मिलित होने को गई तो उसे मार्ग में मारकण्डेय मुनि को तपस्या करते देख रुक जाना पड़ा. सरयु की विपदा देखकर पार्वती को दया आई और उन्होंने शिवजी से सहायता करने का आग्रह किया. व्याप्र रूपी शिव को जब मारकण्डेय मुनि ने गाय रूपी पार्वती पर आक्रमण करते देखा तो उनसे रहा नहीं गया. गो-रक्षार्थ वे तपस्या छोड़कर सहायता के लिए दौड़ पड़े और इसी बीच सरयू नदी आगे की ओर बहने लगी शिव-पार्थती भी अन्तध्थ्यान हो गए. यहीं पर मारकण्डेय मुनि ने मन्दिर का निर्माण करवाया और उसमें शिव की प्रतिमा को व्याप्रनाथ नाम देकर प्रतिष्ठित किया. सन् 1597-1621 में चन्द शासक लक्ष्मीचन्द ने बागेश्वर महादेव के मन्दिर की नए सिरे से बनवाया.
चमोली से दक्षिण पश्चिम की ऊँचाई वाली पर्वत श्रेणी पर गोपेश्वर नाभक नगर के मध्य में यह मन्दिर रि्थत है, इस मन्दिर की ऊँचाई लगभग 80 फीट है जो उत्तराखण्ड के मन्दिरों में सबसे अधिक प्रतीत होती है,
देहरादुन के जौनसार-भावर के लाखामण्डल नामक स्थान पर अनेक मन्दिरों के अवशेष विखरे पड़े हैं परन्तु एक मन्दिर ठीक अवस्या में है. इस मन्दिर की ऊँचाई 50 फीट है. यह शेष मन्दिर है तथा इसका मुख पूर्व की ओर है. मन्दिर का निर्माण पुमावदार सादी नींव पर हुआ है. मन्दिर की जंपाएँ नागर शैली में है. मंदिर में वहुत सी उत्कीर्ण मूर्तियाँ हैं। जिनमें लकुलीश, गंगा, यमुना, गणेश तथा कार्तिकेय की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं.
सोमेश्वर का महादेव मन्दिर अल्मोड़ा से 40 किलोमीटर सोमेश्वर वसा हुआ है. यह कत्यूर की रमणीक और अत्यधिक उपजाऊ घाटी है. यहाँ के महादेव मन्दिर को सोमचन्द ने वसाया था. यह मान्यता है कि सोमेश्वर महादेव में की गई पूजा से काशी में की गई पूजा के समान पुण्य लाभ होता है. सर्प नाम के गाँव के निवासियों द्वारा यह मान्यता पूर्णरूपेण स्वीकार की जाती है. जनश्रुति के अनुसार सोमेश्वर मन्दिर के निकट का कुण्ड पहले दूध से भरा रहता था. एक दिन किसी के द्वारा जूटा कर देने पर वह पानी का कुण्ड बन गया, परन्तु यहाँ का जल आज भी दूध जैसा प्रतीत होता है.
अल्मोड़ा से 12 किमी दूरी पर सिमल्टी गाँव के पास कपिलेश्वर मन्दिर स्थित है, यहाँ चार मुख्य मन्दिर हैं, परन्तु भग्न शिलाओं, खण्डित व विखरे अवशेषों से अनेक मन्दिर होने का आभास मिलता है. कपिलेश्वर का मन्दिर कुमाऊँ के भव्य मन्दिरों में से एक है, यह मन्दिर भारतीय कला का एक उत्कृष्ट और अद्वितीय उदाहरण है.
मन्दिर का शिल्प अलंकृत रथिका स्वरूप है, जिन पर पार्श्व देवता अंकित है, गर्भगृह में चतुर्भुज महिषासुर मर्दिनी, दिभुजशिष और चतुर्भुज गणेश की मूर्तियाँ स्थित हैं. चीखट पर फूल खुदे हैं. प्रवेश द्वार के सामने दायीं बाहरी दिवार पर दक्षिण की ओर सिद्धमातू का लिपि में एक शिलालेख है- जिसको आठवीं शताब्दी का माना जाता है.
अल्मोड़ा से 12 किमी दूरी पर चितई गाँव में गोल्ल देवता का मन्दिर है. गोल्ल देवता को भैरव का ही एक रूप माना जाता है. यह मनोकामना पूर्ण करने वाला देवता माना जाता है. मान्यता है कि सैकड़ों वर्ष पूर्व कुमाऊँ की पुरानी राजधानी चम्पावतगढ़ में कत्यूरी राजा तालराव शासन करता था, फिर वहाँ उसका पौत्र हालराव शासक हुआ. सात रानियों के होते हुए भी हालराव निःसन्तान या. एक वार शिकार करने की इच्छा से वह जंगल गया, लेकिन जंगल में कोई शिकार नहीं मिला. यकान व प्यास से पीड़ित राजा ने अपने सेवकों को पानी लाने के लिए भेजा. नौकरों ने बताया कि जंगल में एक अपूर्व सुन्दरी तपस्यारत् है. दोनों के बीच विधि विधान के अनुसार विवाह सम्पन्न हुआ. हालराव की रानियों ने कालिन्द्रा रानी से उत्पन्न पुत्र को मारने का प्रयत्न किया, लेकिन वह बच निकला. राजा ने गोरिया को अपना पुत्र स्वीकार किया. राजकुमार के रूप में गोरिल अपनी ईमानदारी व न्यायप्रियता के लिए विख्यात हो गया अपनी मृत्यु के वाद वह एक जनप्रिय देवता वन गया और कुमायँ के विभिन्न क्षेत्रों में उसके नाम पर मन्दिर स्थापित किए गए. शताब्दियों के व्यतीत हो जाने पर भी गोरिल देवता पर कुमाऊँ के निवासियों का अगाध विश्वास है. सभी वर्गों के लोग अपने प्रति किए गए अन्याय के विरुद्ध गोरिल के दरबार में निःशुल्क अपना आवेदन करते हैं.
अल्मोड़ा से 29 किमी दूर यह स्थान है. सन् 1729 से 1747 तक अल्मोड़ा के चंद राजाओं की ग्रीष्मकालीन राजधानी विन्सर ही थी. चंद राजाओं ने यहाँ किनेश्वर को ही कालांतर में विन्सर कहा जाने लगा. कहा जाता है कि यहाँ का अधिष्टाता देवता यहाँ के निवासियों की चोटी से रक्षा करता है.
दूधातोली की पर्वत मूंखलाओं में स्थित विन्सर का मन्दिर यहाँ के सांस्कृतिक वैभव की पहचान है. लगभग 45 फीट ऊँचा मन्दिर हेमवत शैली में बनाया गया है. गर्भगृह में नागपाशपुक्त गणेश, एक नाग जि्कापुक्त चतुर्भुज मूर्ति, हरगौरी व अन्य कई स्त्री मूर्तियोँ खण्डित रूप में यत्र- तत्र बिखरी हुई देखने में आती हैं.
अत्मोड़ा से 65 किमी दूरी पर द्रोणगिरि मन्दिर स्थित है. यहाँ पर दुर्गा का ऐतिहासिक मन्दिर है. यहाँ पशुषलि नहीं होती है-कुछ लोग इसे द्रोण ऋ्वषि का स्मारक मानते हैं, जनशरुति के अनुसार लक्ष्मण के मूर्छित होने पर जिस पहाड़ को उठाकर ले जाया गया था उसी का कुछ हिस्सा टूट कर यहाँ गिरा था. इस आशय का एक पत्थर मन्दिर के बाहर लगा है. मन्दिर की स्थापना शाके ।103 (सन् 1183) लगभग हुई होगी.
यह मन्दिर नैनीताल में स्थित है. नैनादेवी के नाम पर ही नैनीताल नगर का नामकरण किया गया. वर्तमान समय में यह मन्दिर नगर के मल्लीताल में स्थित है. यहाँ प्रतिदिन हजारों की संख्या में भक्तगण एवं पर्यटक मन्दिर के दर्शनार्थ आते हैं.
यह मन्दिर हल्द्वानी से लगभग 28 किमी दूर स्थित है. 19वीं सदी के अंतिम समय में प्रसिद्ध संत सोमवती महाराज यहाँ आए थे. जो एक सिद्ध पुरुष थे. इस मन्दिर से जुड़ी अनेक कहानियाँ व वृत्तान्त हैड़ाखान बाबा से जुड़ी हैं.
कैची का मन्दिर नैनीताल जनपद का प्रमुख व लोकप्रिय मन्दिर है. प्रसिद्ध संत श्री नीम करौली वावा ने 1957-58 के लगभग कैची में श्री वैष्णवी देवी मन्दिर की स्थापना की. उन्होंने ही नैनीताल में हनुमानगढ़ी की स्थापना की थी. कैची का मन्दिर वहुत भव्य है, वावा के भक्तों एवं श्रद्धालुओं की संख्या वहुत अधिक होने के कारण यह मन्दिर नैनीताल का महत्वपूर्ण मन्दिर है.
यह मन्दिर रामनगर से रानीखेत की ओर 11 किमी दूरी पर स्थित है. कहते हैं कि पहाड़ी नदी के बीच टीले में यह मन्दिर पहले से स्थित था. नदी की धारा द्वारा दोनों ओर से मिट्टी काट दिए जाने पर मन्दिर उभर कर दिखने लगा. स्थानीय जनसमुदाय में इस मन्दिर में बहुत बड़ी आस्था व विश्वास है. मन्दिर में चढ़ने के लिए 11:50 सीढ़ियाँ हैं, प्रतिवर्ष शिवरात्रि, कार्तिक पूर्णिमा तथा दोनों नवरात्र में विशाल मेले का आयोजन होता है.
मुक्तेश्वर श्री शैल पर्वत पर लिंग के आकार में स्थित है. प्राचीन रिकार्डों में भी शैल की धार ही लिखा हुआ मिलता है. श्री शैल पर्वत का सम्पूर्ण प्रदेश मोक्षदायिनी है. मन्दिर के पास की गुफा किसी ऋषि द्वारा तपस्या करने का आभास देती है.
थलकेदार पिथौरागढ़ का प्रसिद्ध शिव मन्दिर है. ऐंचोली शिलिंग व देवदार गाँवों से यहाँ पहुँचने का मार्ग है. मन्दिर के अंदर स्थित लिंग के लिए कहा जाता है कि यह भू-गर्भ से स्वतः प्रकट हुआ है. इस मन्दिर का 1973 में पुनर्निर्माण किया गया.
यह पियौरागढ़ का प्रसिद्ध मन्दिर है, नेपाल की सीमा के निकट काली नदी के तट पर एक ऊँचे पर्वत शिखर पर यह मन्दिर स्थित है. पूरा पर्वत ही देवी का स्वरूप माना जाता है. इसलिए पर्वत पर उगे पौधों को काटा नहीं जाता है, पूर्णागिरि मन्दिर पर मार्ग कठिन है, लेकिन भक्ति व श्रद्धा से भक्तगण सहज ही इसको पार कर लेते हैं.
देवीधुरा में वाराही देवी का मन्दिर जो वर्तमान नवसृजित चम्पावत जनपद में है. देवी का विग्रह एक भवन में ऊपरी कक्ष में एक संदूक में बंद रहता है. जिसे मेले के अवसर पर घुमाया जाता है. सम्पूर्ण देवीधुरा में फैली भूरे ग्रेनाइट की शिलाएँ पाण्डवों द्वारा फेंकी वतायी जाती हैं वाराही देवी की सिद्ध पीठ को इस क्षेत्र में पूर्णागिरि माना जाता है. चंद राजाओं के शासन- काल में इस सिद्धपीठ में चम्पादेवी और ललत-जिह्ला महाकाली की स्थापना की गई थी.
बालेश्वर को राजा सोमचन्द ने बसाया था. वालेश्वर चम्पावत का प्रसिद्ध मन्दिर है. बलुआ पत्थर पर सुन्दर कलाकृति की गई है. मन्दिर ध्वस्तप्राय स्वरूप में है, लेकिन देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि कभी यह मन्दिर वहुत विशाल रहा होगा. मन्दिर परिसर में सूर्य, गणेश के मन्दिर हैं. अनेक शिवलिंग व देवमूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं. मन्दिर के प्रवेश द्वार अलंकृत हैं.
चम्पावत के दुर्ग के निचले भाग में यह मन्दिर है. इस मन्दिर की स्थापना 1488-1503 ई, को चन्द राजा कीर्ति चन्द के शासनकाल में हुई. जब नेपाल के राजा ने जब विशाल सेना लेकर कीर्ति चंद पर चढ़ाई की तो वह राजा वहुत हताश हुआ. नागनाथ नाम के एक गोरखपंथी कनफट साधु ने इसी समय यहाँ पड़ाव डाला. राजा ने अपनी व्ययथा साधु को सुनाई योगेश्वर ने एक चाबुक राजा को दिया और कहा तुम स्वयं युद्ध भूमि न जाकर अपने सेनापति को यह चाबुक देकर युद्ध भूमि में भेजो. तुम्हारी अवश्य विजय होगी. राजा को युद्ध भूमि में विजय हुई. राजा ने कृतज्ञता-स्वरूप उसके निवास स्थल पर ही समाधि तथा एक मन्दिर वनवा दिया. कृष्णाजन्माष्टमी पर यहाँ त्रिदिवसीय अखण्ड कीर्तन होता है.
नीलकंठ पीड़ी जनपद के यमकेश्वर ब्लाक के अन्तर्गत कषिकेश और पूर्वी तट पर उतुड़्य पर्वत है जो मणिकूट पर्वत के नाम से प्रसिद्ध है. इसी मणिकूट पर्वत में भगवान नीलकण्ठ विराजमान हैं. प्रत्येक वर्ष श्रावण मास में देश के विभिन्न भागों से लोग यहाँ पहुँचते हैं, कांवर को धारण करने वाले भक्त एवं यात्री श्रावण में जल चढ़ाने आते हैं. वर्तमान समय में यह ऋषिकेश क्षेत्र का विशेष तीर्थ बन गया है.
पौड़ी जनपद के कोटद्वार नगर से लगभग 10 किलोमीटरदूर शिवालिक पर्वत श्रेणियों के वीच पश्चिम उत्तर दिशा में मालिनी नदी के तट पर कण्वाश्रम स्थित है. प्राचीनकाल में यहाँ वैदिक शिक्षा व सांस्कृतिक प्रचार-प्रसार का केन्द्र था. उस समय वड़ी संख्या में छात्र यहाँ व्याकरण. ज्योतिष, वेद साहित्य, यश की शिक्षा प्राप्त किया करते थे. यह भी कहा जाता है कि कालिदास ने भी यहीं से शिक्षा ग्रहण की और अभिज्ञान शाकुन्तलम् की रचना की. कण्याश्रम महर्षि कण्व की तपःस्थली के साथ-साथ शकुन्तला-दुष््यंत के प्रेम तथा भरत के जन्म का साक्षी भी रहा है. डॉ. सम्पूर्णानन्द ने सन् 1955 में कण्वाश्रम के महत्व को पुनः स्थापित करने का प्रयत्न किया. कण्वाश्रम मालिनी नदी के बाई ओर पहाड़ी पर एक छोटा मन्दिर है, जिसमें महर्षि कण्च, भरत, कश्यप आदि की मूर्तियाँ हैं.
कीर्तिनगर से 18 किमी. दूर अलकनंदा तट पर पहलगाँव और फिर तीन किमी पैदल मार्ग चलने के पश्चात् दूंगसीर का शिवालय पहुँचते हैं. यहाँ पर कई रहस्यमयी गुफाएँ विद्यमान हैं. मन्दिर के आसपास झरने भी हैं. मन्दिर प्राचीन है. बैकुण्ठ चतुर्दशी को यहाँ विशाल मेला लगता है.
हेमकुण्ड मात्र धार्मिक आस्था का केन्द्र नहीं है. प्रकृति के वैभव का एक सुरम्य पर्यटक स्थल भी है. हिम शिखरों के बीच डेढ़ किलोमीटर लम्बी झील विशेष दर्शनीय है. झील के एक किनारे पर गुरुद्वारा स्थापित है, तो दूसरी ओर लक्ष्मण मन्दिर, सिख मतावलम्बी हेमकुण्ड को अपना मान सरोवर कहते हैं. हेमकुण्ड के विषय में प्रसिद्ध है कि सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह ने पूर्व जन्म में यहाँ लम्बवी तपस्या की थी. सन् 1930 में संत सोहन सिंह ने हेमकुण्ड की खोज की और ज्ञात हुआ कि यही वह स्थान है जहाँ गुरु गोविन्द सिंह ने तपस्या की थी. 1936 में संत सोहन सिंह अपने भाई वीर सिंह के साथ पुनः यहाँ आए और एक गुरुद्वारे की स्थापना की. धीरे-धीरे सिख श्रद्धालुओं और अन्य धर्मों के लोग भी यहाँ पहुँचने लगे. स्थानीय लोगों ने यहाँ लक्ष्मण मन्दिर भी निर्मित किया है.
जिला मुख्यालय पौड़ी से 48 किमी दूर देवलगढ़ स्थित सोम का भांडा स्मारक प्राचीन समय में राजाओं की राजधानी रहा है. वर्तमान में इसकी स्थिति दयनीय है. स्मारक की दीवारों पर कूट लिपि अंकित है, जो आज भी इतिहास विदों के लिए चुनौती बनी है. स्मारक की दीवारों पर आकर्षक चित्र भी बने हैं.
देवलगढ़ में सोम का भांडा स्मारक के अलावा प्राचीन नाथ सिद्धों की गुफाएँ भी हैं. जिन पर शिलालेख विद्यमान है. समाधियों के नीचे लगभग सौ फीट पर श्री भैरव सिद्ध गुफा है. कहा जाता है कि इस गुफा में नाथ सम्प्रदाय के सिद्ध बाबा सत्यनाथ ने तपस्या की थी, जिनकी संख्या लगभग 6-7 बताई जाती है. इन स्मारक और गुफाओं का जीर्णोद्धार होना आवश्यक है वरना ये सांस्कृतिक धरोहर समाप्त हो जाएगी. उत्तराखण्ड सरकार को एक नीति निर्धारित कर इस प्रकार के जीर्ण-सीर्ण मन्दिरों को नवजीवन प्रदान करना चाहिए.
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